अमीरों को बुलेट ट्रेन, गरीबों के लिये बुलडोजर

वर्ष 2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद से ही नरेन्द्र मोदी ने जपना शुरू किया है कि 2022 में, जब भारत स्वतंत्रता के बाद के 75 वर्ष पूरे करेगा, भारत कैसा होगा. वास्तविकता यह है कि जब गुजरात के विधान सभा चुनाव नजदीक आ गये हैं, और सरकार के पास 2014 में किये गये चुनावी वादों को पूरा करने के लिहाज से जनता को दिखलाने के लिये कुछ भी नहीं है, तब 2022 मोदी के लिये एकमात्र मंत्र बच गया है. और अब हमें पता चल गया है कि 2022 का समारोह मनाने की योजना का केन्द्र बिन्दु क्या है - अहमदाबाद से मुंबई तक जाने वाली बुलेट ट्रेन सेवा, जिसे लगभग पूरा-का-पूरा जापान से आयातित किया जायेगा. बुलेट ट्रेन सेवा के दोनों छोरों के चयन से ज्यादा उनके इरादों का वास्तविक इशारा और क्या हो सकता है - अहमदाबाद मोदी के मॉडल गुजरात की राजधानी है जबकि मुंबई कॉरपोरेट भारत की राजधनी. भारत के भू-राजनीतिक संतुलन का पलड़ा इससे ज्यादा पश्चिम की ओर कभी नहीं झुका था. अब गुजरात मॉडल सच्चे मायनों में भारत में शासन का वर्चस्वशाली प्रतिमान बन गया है.

बुलेट ट्रेन परियोजना की शुरूआत की घोषणा करने के लिये जापान के प्रधनमंत्री शिंजो आबे सीधे अहमदाबाद पहुंच गये - उनकी यात्रा-कार्यक्रम में नई दिल्ली का कहीं नाम भी नहीं था. मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के दौर में जापान के साथ अपने घनिष्ठ सम्पर्कों को याद करते हुए और गुजरात में ‘मिनी जापान’ की स्थापना करने का आह्वान करते हुए इस परियोजना को वस्तुतः श्री आबे के साथ अपनी व्यक्तिगत मित्रता को समर्पित उपहार के रूप में पेश किया. मोदी सरकार हमें यकीन दिलाना चाहती है कि यह परियोजना वस्तुतः जापान द्वारा हमें दी जा रही ‘भेंट’ है, जिसमें जापान भारत को 88,000 करोड़ रुपये का कर्ज देगा जिसको 50 वर्ष की अवधि में चुकाना है और इस दौरान ब्याज केवल 0.1 प्रतिशत की सालाना दर से लगेगा. बुलेट ट्रेन परियोजना के पैरोकारों के लिये बस कम ब्याज पर लम्बी अवधि में चुकाया जाने वाला कर्ज ही सब समस्याओं का समाधन है, मानो किसी सरकार की प्राथमिकताएं तय करने के लिये यही सबसे बड़ा मानदंड होता है.

यह तर्क पूरी तरह से गलत है. जापान से लिया जाने वाला कर्ज ही इस परियोजना की पूरी लागत नहीं है. अगर हम लागत बढ़ते जाने की निहायत यकीनी संभावना की बात अभी छोड़ भी दें, तो सरकार को इसमें कम-से-कम 22,000 करोड़ रुपये अपनी तरफ से लगाने होंगे, जो कोई छोटी-मोटी राशि नहीं है. दूसरी बात यह है कि भारत में कर्ज पर ब्याज की दर को देखते हुए 0.1 प्रतिशत सालाना ब्याज दर बहुत कम लग सकती है, मगर जापान जैसे देश के लिये, जो बचत को निरुत्साहित करने और निवेश एवं उपभोग को प्रोत्साहित करने के लिये नकारात्मक ब्याज दरों का प्रयोग कर रहा है, 0.1 प्रतिशत की सालाना ब्याज दर भी वास्तव में जापान के अपने दीर्घ-अवधि वाले बांडों पर मिलने वाली ब्याज की दर से ढाई गुणे ज्यादा है. और अंतिम मगर अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत को यह कर्ज येन में चुकाना होगा, जिसका मतलब है कि मूल-सूद भुगतान की गणना करते वक्त हमें जापानी और भारतीय मुद्राओं के बीच की तत्कालीन विनिमय दर का भी खयाल रखना होगा. जापान वस्तुतः शून्य मुद्रास्पफीति वाला अर्थतंत्र है और भारत में मुद्रास्पफीति की दर औसतन 3 प्रतिशत सालाना है, इसलिये मूल-सूद चुकाने के वक्त भुगतान राशि की गणना येन और रुपये के बीच विनिमय की वर्तमान दर के अनुसार नहीं होगी, बल्कि लगातार गिरते भारतीय रुपये के मूल्य के हिसाब से होगी. अगर येन की तुलना में भारतीय रुपये का मूल्य सालाना 3 प्रतिशत गिरता रहे तो जापान को वापस चुकाये जाने वाली राशि 50 वर्ष की अवधि में रुपयों में बढ़कर 150,000 करोड़ तक पहुंच जायेगी.

सचमुच, बुलेट ट्रेन भारत से कहीं बढ़कर जापान के लिये वरदान है. हाल के वर्षों में हाई स्पीड रेल परियोजनाओं के मामले में जापान की तुलना में चीन कहीं ज्यादा आकर्षक प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरा है. मौजूदा अनुमान के अनुसार, अहमदाबाद-मुंबई परियोजना के दौरान निर्माण कार्य की लागत 274.4 लाख डाॅलर प्रति किलोमीटर बैठ रही है. चीन में इसी किस्म की परियोजना में लागत 170-210 लाख डाॅलर आती है. कोई आश्चर्य नहीं कि इंडोनेशिया, थाईलैंड और लाओस में हाई स्पीड रेल की परियोजनाओं का ठेका हासिल करने में चीन ने जापान को परास्त कर दिया है. भारत के मामले में, जापान को इस परियोजना का ठेका सौंपने के पीछे विशुद्ध रूप से राजनीतिक उद्देश्य काम कर रहा है, अतः भारत ने चीन को इससे बाहर रखने के मकसद से परियोजना की बोली लगाने की प्रतियोगिता ही नहीं आयोजित की. अब भारत को परियोजना की अधिकांश लागत सामग्री, जिसमें कुशल श्रमिक भी शामिल हैं, के लिये जापान पर निर्भर करना पड़ेगा, जिसकी वजह से एकदम शुरूआत से ही जापान भारत को जो पैसा दे रहा है, वह वापस जापान पहुंचना शुरू हो जायेगा, और इससे जापान को अपने आर्थिक ठहराव के दौर से निजात पाने में काफी मदद मिलेगी.

अगर लागत की बात जाने भी दें, तो सबसे बड़ा सवाल इस परियोजना के सार्थक होने का है. आई.आई.एम. अहमदाबाद द्वारा किया गया एक अध्ययन हमें बताता है कि परियोजना को आर्थिक रूप से लाभकारी होने के लिये बुलेट ट्रेन से प्रतिदिन कम-से-कम 88,000 से 118,000 यात्रियों को सफर कराना होगा. इसका मतलब होगा हर दिन 100 फेरे. अब मुंबई और अहमदाबाद के बीच यात्रा के लिये 3,000 रु. से लेकर 5,000 रुपये तक का अनुमानित भाड़ा अदा करने वाले 100,000 यात्रियों को प्रतिदिन जुटाना यकीनन बहुत ही मुश्किल बात होगी, खासकर तब, जबकि हम देख रहे हैं कि आजकल कम भाड़े पर चलने वाली हवाई जहाज सेवाएं यात्रियों को इसके तुलनामूलक या इससे भी कम भाड़े पर बुलेट ट्रेन द्वारा लिये गये समय के एक-तिहाई समय के अंदर पहुंचाने को तैयार हैं.

हमको सबसे बड़ी चिंता केवल इस परियोजना के सार्थक होने की ही नहीं है, बल्कि सार्वजनिक धनराशि को खर्च करने में सरकार की प्राथमिकता को लेकर है. अगर हम रेलवे क्षेत्र की ओर ही देखें तो आज की घड़ी में दो सबसे ज्वलंत सवाल यात्रियों की सुरक्षा और उन्हें मिलने वाली सुविधओं के हैं. रेल दुर्घटनाओं में गाड़ियों के बेपटरी होने और यात्रियों की मौतों या उनके घायल होने की तादाद अब बहुत खतरनाक हद तक पहुंच चुकी है. 2016-17 में ट्रेनों के बेपटरी हो जाने की वजह से 197 लोगों की मौत हो गई, जो किसी भी दशक में होने वाली मौतों में सर्वाधिक है. स्थिति और खतरनाक तब हो जाती है जब हम बिना फाटक-चैकीदार वाली लेवल क्रासिंग के चलते ट्रेनों द्वारा कुचले गये लोगों की तादाद भी इसमें जोड़ दें - आज भी देश भर में लगभग 10,000 रेलवे क्रासिंग ऐसी हैं जहां फाटक-चैकीदार नहीं है और जो वस्तुतः मौत का फंदा बने हुए हैं.

अगर हम शहरी परिवहन में तेज गति लाने की विधियों पर केन्द्रित करें, तो लगभग हर मामले में मेट्रो का नेटवर्क निर्धारित समय-रेखा के पीछे चल रहा है. दिल्ली मेट्रो - जो हाल के वर्षों में भारत में तीव्र गति वाले सार्वजनिक परिवहन के विकास में एकमात्र प्रमुख सफलता की कहानी है - की सफलता का श्रेय ई. श्रीधरन को दिया जाता है, उन्होंने परियोजना सम्पूर्ण होने में इस देरी के लिये निजी-सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) मोड को तथा केन्द्र सरकार द्वारा निवेश में कमी दोष दिया है. जहां मेट्रो परियोजनाएं निर्धारित समय-सीमा से पीछे चल रही हैं और रेलवे की सुरक्षा, बुनियादी ढांचे की मरम्मत और उसका स्तर ऊंचा उठाने तथा बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने की समस्याओं की सदा-सर्वदा अवहेलना की जाती है - ऐसी स्थिति में श्री ई. श्रीधरन ने बुलेट ट्रेन पर निवेश को गलत प्राथमिकता के आधार पर किया गया निवेश करार दिया है.

अगर हम सार्वजनिक व्यय और सरकार की प्राथमिकताओं की तस्वीर को बड़े पैमाने पर देखें तो हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं केवल पश्चिम भारत के दो शहरों के बीच किसी तीव्र गति वाली ट्रेन पर भारी मात्रा में यह निवेश शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर किये जा रहे सार्वजनिक व्यय में खतरनाक ढंग से आने वाली गिरावट की कीमत पर किया जा रहा है. प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से भारत बुलेट ट्रेन जैसी परियोजना अपना रहे या अपना चुके अन्य देशों की तुलना में बहुत पीछे है. यहां तक कि इंडोनेशिया में, जो भारत के सबसे करीब है, प्रति व्यक्ति आय भारत की तुलना में दुगनी है. जीडीपी के लिहाज से भारत स्वास्थ्य सेवा पर मात्र 1.2 प्रतिशत और शिक्षा पर मात्र 3.71 प्रतिशत (जो 1999 में खर्च 4.4 प्रतिशत से काफी कम है) खर्च करता है.

पांच दशक पहले जब जापान बुलेट ट्रेन निर्माण में कामयाब होने वाला पहला देश बना था (टोकियो और ओसाका के बीच बुलेट ट्रेन सेवा 1964 में टोकियो ओलिम्पिक की पूर्व वेला में आरम्भ हुई थी), तो वह वह एक ऐसे देश में, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम के जरिये हुए जनसंहार एवं तबाही समेत भारी चैतरफा विधवंस का शिकार रह चुका था, आर्थिक पुनरुत्थान और तकनीकी अग्रगति का प्रतीक बन गया था. लेकिन 2022 के भारत के लिये बुलेट ट्रेन किस बात का प्रतीक बनेगी? दुनिया के द्वितीय सर्वाधिक आबादी वाले देश में, जो दुनिया भर में सर्वाधिक गरीब, कुपोषण-ग्रस्त और बेरोजगार लागों का घर भी है, बुलेट ट्रेन केवल मोदी सरकार द्वारा आक्रामक ढंग से थोपे जा रहे विकास के मॉडल की बर्बरता का प्रतीक होगा - अमीरों को बुलेट ट्रेन, गरीबों के लिये बुलडोजर.