सीबीआई न्यायाधीश जस्टिस लोया की मौत से उठते चिंताजनक सवाल

सीबीआई न्यायाधीश जस्टिस लोया की मौत से उठते चिंताजनक सवाल

स्पेशल सीबीआई न्यायाधीश जस्टिस बृजगोपाल हरकिशन लोया, जो सोहराबुद्दीन हत्याकांड की सुनवाई कर रहे थे, जिस हत्याकांड में नरेन्द्र मोदी के सहकारी अमित शाह और गुजरात पुलिस के उच्चाधिकारी आरोपी हैं, अचानक 30 नवम्बर 2014 को - मुकदमे की अगली सुनवाई के दो सप्ताह पहले - नागपुर के एक सरकारी गेस्ट हाउस में मरे पाये गए थे. 48-वर्षीय जस्टिस लोया की मौत के एक महीने के अंदर ही उनके उत्तराधिकारी ने सोहराबुद्दीन हत्याकांड के मुकदमे से अमित शाह को बरी कर दिया था. जस्टिस लोया के पूर्ववर्ती न्यायाधीश, जो शाह के खिलाफ कठोर रवैया अपना रहे थे, को सुनवाई की एक तारीख से ठीक एक दिन पहले ही स्थानांतरित कर दिया गया था. इस तारीख को न्यायाधीश ने शाह को मुकदमे में हाजिर होने को कहा था. जस्टिस लोया भी शाह के प्रति नरमी दिखाने के बजाय इस मुकदमे में पूरी लगन से सुनवाई कर रहे थे.

अब तीन वर्ष बाद मरहूम जस्टिस लोया के परिवार के सदस्यों ने उनकी मृत्यु जिन हालात में हुई उसे लेकर कई चिंताजनक सवाल उठा दिये हैं. उनकी बहन ने आरोप लगाया है कि उनकी मृत्यु से पहले जस्टिस लोया को जान से मारने की धमकी भरे फोन आते थे, और उन्हें घूस के बतौर बॉम्बे हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने तक के प्रस्ताव पेश किए गए थे........, जिसका मकसद था उन पर सोहराबुद्दीन हत्याकांड के मुकदमे में उनके पक्ष में फैसला सुनाने के लिये दबाव डालना.

उनके परिवार के सदस्यों ने उनकी मौत को घेरे कई संदेहजनक हालात का हवाला दिया है. वे कहते हैं कि जस्टिस लोया बिल्कुल फिट थे, उनका किसी हृदय रोग का इतिहास भी नहीं था, इसलिये उन्हें संदेह है कि उनकी मौत अचानक हार्ट अटैक से हुई है. वे दावा करते हैं कि जब उनका शव उनके परिवार को सौंपा गया तो उनके शरीर के कपड़ों पर खून के दाग थे, जिनका उल्लेख पोस्टमार्टम रिपोर्ट में नहीं किया गया. वे पूछते हैं कि वह कौन रहस्यमय इन्सान था जिसने पोस्टमार्टम रिपोर्ट के हर पृष्ठ पर दस्तखत किए हैं यह दावा करते हुए कि वह न्यायाधीश लोया का नागपुर में रहने वाला ‘चचेरा भाई’ था (जबकि उनका कोई चचेरा भाई नहीं था). वे पूछते हैं कि उनकी मौत के वास्तविक समय को लेकर इतने भिन्न भिन्न विवरण क्यों हैं, जिनमें भारी फर्क है. वे पूछते हैं कि एक आरएसएस का कार्यकर्ता ईश्वर बहेटी जस्टिस लोया के परिवार वालों को उनके शव को पहुंचाने की योजनाओं के बारे में सारी सूचनाएं दे रहा था और दावा कर रहा था कि वह सारी चीजों का समन्वय कर रहा है? क्यों बहेटी ने न्यायाधीश का सेल फोन परिवार वालों को वापस लाकर दिया, और क्यों उस फोन से सारे डाटा को मिटा दिया गया था, उस एसएमएस समेत जिसमें उनको ‘इन लोगों से सुरक्षित रहने’ की चेतावनी दी गई थी?

जस्टिस लोया की मृत्यु के समय भी सोहराबुद्दीन के भाई ने, जिसने हत्याकांड की शिकायत दर्ज कराई थी, जस्टिस लोया की अचानक मृत्यु के बारे में सवाल उठाये थे कि यह मृत्यु अमित शाह के लिये बड़ी सुविधाजनक है. जस्टिस लोया के परिजनों द्वारा उठाये गए चिंताजनक सवाल हमें सोहराबुद्दीन की नकली मुठभेड़ में हत्या की संदिग्ध और अंधकारपूर्ण स्थितियों की फिर से याद दिलाते हैं. सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी कौसर बी का गुजरात पुलिस के अधिकारियों ने अपहरण किया था. सोहराबुद्दीन को तो मार दिया गया और उनकी मौत पर नकली ‘मुठभेड़’ का पर्दा डाल दिया गया, जबकि उनके अपहरण की गवाह कौसर बी का बलात्कार किया गया, उनकी हत्या की गई और फिर उनकी लाश को जमीन में गाड़ दिया गया. सोहराबुद्दीन और कौसर बी के अपहरण के एक अन्य गवाह तुलसीराम प्रजापति ने बारम्बार अदालत के सामने कहा था कि उनकी जान को खतरा है, और उनकी भी गुजरात पुलिस ने हत्या कर दी. खुद गुजरात पुलिस के अफसरान ने इन हत्याओं की गवाही दी है. इसके अलावा ऐसे फोन रिकार्ड उपलब्ध हैं जो दिखाते हैं कि गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह इन हत्याओं के समय आरोपी पुलिस अधिकारियों से घनिष्ठ सम्पर्क बनाये रख रहे थे.

जस्टिस लोया की जिस तरीके से और जिस खास वक्त मौत हुई, उसके बारे में उनके परिजनों द्वारा जो संदेह के बिंदु उठाये गए हैं उनसे गुजरात में मोदी-शाह के राज के दिनों में हुए बहुतेरे अंधकारपूर्ण और हत्याकारी अपराधों की खौफनाक याद ताजा हो जाती है. सन् 2013 में, सोहराबुद्दीन, कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की हत्या के आरोपी पुलिस अधिकारियों में से एक डीजी वंजारा ने सार्वजनिक रूप से इशारा किया था कि ये नकली मुठभेड़ें मोदी की रहनुमाई में चल रही गुजरात सरकार की एक ‘सचेत नीति’ का अंग थे, जिसने मोदी को ‘बहादुर मुख्यमंत्री का प्रभामंडल’ धारण करने में मदद करके भारी राजनीतिक लाभ दिलाया था; और यह कि गुजरात सरकार ‘बड़ी नजदीकी से हमारी गतिविधियों को प्रेरणा दे रही थी, उनका निर्देशन कर रही थी और उनकी देखरेख भी कर रही थी’.

अमित शाह की ही तरह, इन हत्याकांडों के आरोपी राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया और गुजरात पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों की एक समूची शृंखला को एक के बाद एक अदालतों द्वारा बरी करने का आदेश सुनाया जा चुका है. सीबीआई, जो ‘पिंजड़े में बंद तोते’ के रूप में भलीभांति बदनाम हो चुकी है, ने इन फैसलों को कोई चुनौती नहीं दी.

क्या जस्टिस लोया की मौत के बारे में उनके परिजनों द्वारा उठाये गए सवालों का कभी जवाब मिलेगा? क्या गुजरात में हुई नकली मुठभेड़ों के पीड़ितों को कभी न्याय मिलेगा? या फिर इन अपराधों को अंजाम देने वाले अपनी राजनीतिक सत्ता, धनबल, धमकयों और हिंसा के जरिये सच्चाई और न्याय को दफन कर देंगे और हत्या करके साफ बचे रहेंगे?

भारत की लोकतंत्र-पसंद और न्याय-पसंद जनता हमेशा इन सवालों को जिंदा रखेगी, जब तक इन अपराधों को अंजाम देने वालों को अदालत के कटघरे में नहीं खड़ा किया जाता. ु