सुबोध दा को लाल सलाम

16 जून 2019 की शाम में दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में का. सुबोध कुमार सिन्हा (देबाशीश बोस) का निधन हो गया. पिछले कुछ वर्षों से उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था, किंतु यह उम्मीद न थी कि इस तरह अचानक उनकी मौत हो जाएगी.

का. सुबोध का जन्म 1 जुलाई 1940 को रांची में हुआ था. नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बाद के उथल-पुथल भरे 1970 के दशक की शुरूआत में बिहार राज्य विद्युत बोर्ड में उच्च कुशल सुपरवाइजर के रूप में उनकी नौकरी लगी और हाई टेंशन बिजली लाइन बिछाना उनकी जिम्मेवारी थी. उसी दौरान वे भाकपा-माले के संपर्क में आए और एक बेशकीमती समर्थक बन कर पार्टी के लिये कामों में लग गये.

इसी दौर में वे 1973 में नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए और अब उन्होंने न सिर्फ अपनी नौकरी, बल्कि अपनी पूर्व की पहचान और जिंदगी भी त्याग दी. पार्टी को ही परिवार बनाकर ‘सुबोध’ के बतौर उनका पुनर्जन्म हुआ - यही उनका पार्टी नाम था और इसी नाम के जरिये वे अंत तक जाने जाते रहे. 

1975-78 के दौरान पटना-गया अंचल में उन्होंने पार्टी संगठक के बतौर काम किया और इमर्जेंसी के उस कठिन दौर में पार्टी के प्रकाशन विभाग को संचालित करने में भी मदद की. ये वो दिन थे जब पार्टी को चरम राज्य दमन के सामने भूमिगत स्थिति में काम करना पड़ रहा था और बाजार में पार्टी साहित्य को छपवाना कोई आसान काम नहीं था. उन्होंने गया में पार्टी का अपना भूमिगत प्रेस स्थापित करने की पहल ली जो पार्टी के पर्चे और अन्य साहित्य प्रकाशित करता था. उसी प्रेस के जरिये पार्टी पत्रिका के अलावा का. सरोज दत्त की संकलित रचनाएं भी प्रकाशित की गई.

1978 में पार्टी केन्द्र द्वारा एक सेन्ट्रल टेक्निकल टीम का गठन किया गया जिसको अन्य प्रकाशनों के अलावा एक नई ‘लाल झंडा’ पत्रिका के प्रकाशन की जिम्मेदारी दी गई. इस टीम के कार्यक्षेत्र में दक्षिण बिहार (अब झारखंड) के मजदूर वर्ग के केन्द्र धनबाद, बोकारो, जमशेदपुर, रांची आदि शामिल थे. इसी टीम के सदस्य के बतौर काम करते हुए ही वे बोकारो स्टील सिटी के इस्पात मजदूरों के बीच संगठक के बतौर काम करने लगे. इस दौर में खास तौर पर हिंदुस्तान स्टील वर्क्स कंस्ट्रक्शन लि. के श्रमिकों के बीच पार्टी निर्माण में उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही. साथ ही उन्होंने बेरमो अंचल में कोयला व बिजली मजदूरों के बीच भी काम किया. गोमिया बारूद कारखाना और बोकारो थर्मल प्लांट से लेकर बोकारो स्टील सिटी तक आज वरिष्ठ पार्टी नेताओं की एक बड़ी संख्या है, जिन्हें का. सुबोध ने पार्टी धारा में शामिल किया था. ’90 के दशक में उन्होंने छत्तीसगढ़ के भिलाई स्थित इस्पात कारखाने एवं एचएससीएल के मजदूरों के बीच पार्टी निर्माण के काम की जिम्मेवारी निभाई. इस तरह उन्होंने लंबे समय तक मजदूर वर्ग के एक संगठक की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.  

वे रांची में भी पार्टी संगठन के अग्रणी नेताओं में एक थे, और गिरिडीह जिले में पार्टी की शुरूआती नींव डालने में भी उन्होंने योगदान किया था. 

का. सुबोध 1997 में पार्टी के केंद्रीय कार्यालय में शामिल किए गए. अगले दो दशकों में उन्होंने पार्टी की साप्ताहिक बुलेटिन एमएल अपडेट के प्रबंधन का जिम्मा संभाला, और साथ ही केंद्रीय पार्टी कार्यालय में रिसेप्शन की भी देखरेख की. यहां तक कि 14 जून को भी, उन्हें अंतिम बार अस्पताल ले जाने के एक दिन पहले तक, उन्होंने अपनी सुबह रिसेप्शन पर ही बिताई.

अपनी सादगी, शांत विनोदी और सरल स्वभाव की वजह से वे सब के लिए एक प्यारे कामरेड बन गए थे और देश भर के सभी कामरेड उन्हें स्नेह से ‘सुबोध दा’ कहकर बुलाते थे. वे अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद अपनी जिम्मेवारी निभाने से कभी पीछे नहीं हटते थे. वे अपनी अंतिम सांस तक पार्टी जिम्मेवारियों में सक्रिय बने रहे. पूरे देश के कामरेडों ने अपने इस अति प्रिय साथी को अंतिम विदाई दी है. 

17 जून की सुबह दिल्ली के कामरेडों ने भाकपा-माले के केंद्रीय कार्यालय में उन्हें अंतिम विदाई दी और वे सब दाह संस्कार स्थल तक उनके साथ गए.

अपनी अंतरात्मा से एक श्रमिक और कम्युनिस्ट सुबोध दा ने 80 वर्षों के अपने जीवन का बड़ा भाग जनता और पार्टी के काम में समर्पित किया था. उनकी स्मृति हम लोगों को सदैव प्रेरित करती रहेगी.

कामरेड सुबोध को लाल सलाम!