बिहार में इनसेफलाइटिस महामारी -बिहार और केंद्र सरकारों के हाथ खून से रंगे हैं

बिहार में जापानी इनसेफलाइटिस की रोक-थाम और ईलाज में आपराधिक लापरवाही के लिए बिहार और केंद्र की सरकारें दोषी हैं. ‘एक्यूट इनसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस, जिसे बिहार में आम तौर पर ‘चमकी बुखार’ कहा जाता है) से बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के जिलों में 125 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है.

1995 के बाद से यह रोग हर गरमी के मौसम में असर करता आ रहा है, जिससे लीची तोड़ने वाले मजदूरों व अन्य कामगारों के बच्चे प्रभावित होते हैं. लीची तड़के सुबह तोड़ी जाती है और जिन डब्बों में भरी जाती है, उनमें टॉक्सिन रसायन रहता है जिससे ‘ब्लड सुगर’ (खून में चीनी की मात्रा) काफी कम हो जाती है. लीची तोड़ने वाले मजदूरों के बच्चे भूख मिटाने के लिए नीचे गिरी लीचियां खाते हैं और खासकर जो बच्चे पहले से ही कुपोषण के शिकार होते हैं और जिन्हें दिन में स्वास्थ्यकर भोजन नहीं मिलता है, वे इस रोग की चपेट में आ जाते हैं. खाने के पहले लीचियों को धोना और दिन में पर्याप्त आहार या चीनी मिला पानी पीना इस रोग की रोकथाम के सहज उपाय हैं. और फिर, अनुभवी डॉक्टरों द्वारा समय पर चिकित्सा होने से भी प्रभावित बच्चे की जान बचाई जा सकती है. यह जानकारी होने के बावजूद कि यह हत्यारा रोग जिसकी रोकथाम और इलाज हो सकता है; हर साल हमला करता है, बिहार और केंद्र की सरकारों ने इस महामारी की रोकथाम के लिए और समयोचित पर्याप्त चिकित्सा के लिए कोई कदम नहीं उठाया है. सवाल यह उठता है कि क्या ये सरकारें उत्पीड़ित जातियों से आने वाले खेतिहर दिहाड़ी मजदूरों के बजाए प्रभुत्वशाली वर्गों व जातियों के बच्चों का मामला होने पर भी ऐसा ही उपेक्षापूर्ण बर्ताव कर सकती थीं?

सरकार ने इस रोग से बच्चों को बचाने के सहज तौर-तरीकों के बारे में जागरूकता फैलाने की कोई कोशिश अबतक नहीं की है. लीची तोड़ने का काम गर्मियों में होता है, जब स्कूलों में छुट्टियां रहती हैं और गरीब बच्चों को मिड-डे मील भोजन नहीं मिल पाता है. कोष के अभाव में आंगनबाड़ी व्यवस्था चरमराई रहती है - इसके कर्मियों को काफी कम पारिश्रमिक मिलता है और इनकी संख्या भी काफी कम है; इसी वजह से बच्चों को कुपोषण और भूख से बचना लगभग नामुमकिन हो जाता है. एक बार जब यह रोग हमला कर बैठता है तो शीघ्र ही यह महामारी का रूप ले लेता है, क्योंकि इसे फैलने से रोकने की कोई योजना नहीं होती है. और फिर, गांव-प्रखंड व अनुमंडल स्तर पर अस्पतालों की भारी कमी तथा यहां तक कि जिला अस्पतालों में भी आइसीयू व इमर्जेंसी सेवाओं की बदहाली की वजह से प्रभावित बच्चे बड़ी संख्या में मौत के शिकार बन जाते हैं. गांव में कोई बच्चा अगर इस इनसेफलाइटिस बुखार से ग्रस्त हो जाता है, तो शहर के अस्पताल में लाते-लाते उसकी अवस्था इतनी बिगड़ जाती है कि फिर उसकी जान बचाना संभव नहीं हो पाता है.

इस बीच, बिहार के स्वास्थ्य मंत्री भाजपा के मंगल पांडे ने इस महामारी पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में शर्मनाक लापरवाही का प्रदर्शन करते हुए इस रोग के बारे में कुछ न बोलकर क्रिकेट स्कोर के बारे में जानकारी लेनी चाही. जद (यू) सांसद दिनेश चंद्र यादव ने यह कहते हुए मंगल पांडे का बचाव किया कि भारत-पाकिस्तान मैच में क्रिकेट स्कोर के बारे में उनकी चिंता उनके ‘राष्ट्रवाद’ को उजागर करती है. इस सांसद ने इस महामारी को अत्यंत हल्के रूप में लेते हुए कहा कि ‘यह तो हर साल होता है और बारिश होते ही यह रूक जाएगा.’ इस प्रकार, भाजपा और जद (यू) की नजरों में यह रोकथाम की जा सकने वाली महामारी, जिससे हर साल गरीब बच्चे मरते हैं, कोई ‘राष्ट्रवादी’ चिंता नहीं है, लेकिन क्रिकेट स्कोर है!

जागरूकता फैलाने के किसी भी सरकारी प्रयास के अभाव में ‘नेशनल फोरम फॉर पीपुल्स राइट्स (एनएफपीआर) पर यह जिम्मेदारी डाल दी गई कि वह मुजफ्फरपुर में इनसेफलाइटिस की रोकथाम के बारे में जागरण कार्यक्रम आयोजित करे. इसकी रोकथाम की विस्तृत जानकारी के साथ पर्चे बांटे गए. इस अभियान के अंग के बतौर मुजफ्फरपुर स्टेशन चौक पर एक रैली व सभा की गई, जिसमें भाकपा-माले कार्यकर्ताओं समेत अन्य लोगों ने भी इस रोग और इससे बचने के उपायों का जिक्र किया.

भाकपा-माले विधायक महबूब आलम की अगुवाई में एक टीम मुजफ्फरपुर गई और उसने मुजफ्फरपुर स्थित श्रीकृष्ण मेमोरियल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में रोग से पीड़ित बच्चों और उनके अभिभावकों से मुलाकात की. टीम ने पाया कि इस महामारी से निपटने लायक वहां बुनियादी सुविधाओं और मेडिकल कर्मियों की भारी कमी है. टीम ने नीतीश सरकार से मंगल पांडे को बर्खास्त करने, युद्ध स्तर पर इस हत्यारे रोग का मुकाबला करने और इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य इमर्जेंसी के बतौर समझने की मांग उठाई है. पार्टी ने महामारी को और ज्यादा फैलने से रोकने, बिहार के बच्चों को बचाने के लिए अतिरिक्त डाक्टरों व मेडिकल कर्मियों की तैनाती करने तथा जिला अस्पतालों में आईसीयू और प्रखंड स्तरीय अस्पतालों में इमर्जेंसी सेवा बहाल करने की भी मांग की है.

गोरखपुर (उ.प्र.) और मुजफ्फरपुर (बिहार) में इनसेफलाइटिस महामारियां यह भी दिखलाती हैं कि मोदी सरकार द्वारा घोषित ‘आयुष्मान भारत मेडिकल बीमा योजना’ भारत की स्वास्थ्य सेवा में लगी बीमारी को दूर करने में बिलकुल नाकारगर है. 2005 में जेएनयू के डा. रमा बारू ने उ.प्र. में होने वाली जापानी इनसेफलाइटिस बीमारी के बारे में बताया था. दो दशक बीत जाने के बाद भी हालात नहीं बदले, क्योंकि उससे कोई सबक नहीं लिया गया. डॉक्टर बारू ने जोर देकर कहा था कि मुद्दा सिर्फ यह नहीं हो सकता है कि रोगग्रस्त नागरिकों को अस्पताल तक पहुंच मिले. इनसेफलाइटिस, मलेरिया, गैस्ट्रोइंटेराइटिस जैसे रोगों के फैलाव को रोकने के लिए एक सशक्त सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा की जरूरत है जो इन रोगों की उत्पत्ति और फैलाव पर पैनी नजर रख सके. ऐसे सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के अभाव में इन रोगों के संक्रमण को रोकना असंभव है. केरल में, जहां अन्य राज्यों की बनिस्पत सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा ज्यादा मजबूत है, हमने देखा कि ‘नीपा’ वाइरस महमारी की कैसे रोकथाम कर ली गई. पूरे भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण और फलतः सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में आ रही कमजोरी ने संक्रामक रोगों का पूर्वानुमान करने और इसकी रोकथाम करने की क्षमता को भी कमजोर कर दिया है. इसके अलावा, डा. बारू ने यह भी बताया कि महामारियां समाज के सबसे कमजोर तबकों - आदिवासियों, दलितों और भूमिहीन मजदूरों - को शिकार बनाती हैं, क्योंकि ये तबके चिरस्थायी भूख, कुपोषण और बेरोजगारी से पीड़ित रहते हैं. महामारियों को समझने के लिए हमें बेरोजगारी, भूख और कुपोषण को भी नजर में रखना होगा.

भारत की संकटग्रस्त स्वास्थ्य सेवा का मोदी सरकार का जवाब - आयुष्मान भारत - एक मेडिकल बीमा योजना है, जिसके माध्यम से सरकारी धनराशि निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदायकों को मुहैया कराई जाएगी. इससे भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और भी बदतर हो जाएगी. इसके जरिए जिस किसी तरह प्रीमियम लेकर गरीबों को ही लूटा जाएगा. लेकिन स्थानीय रोगियों के लिए समयोचित व कारगर इलाज की कोई गारंटी नहीं रहेगी. और बेशक, चिरस्थायी भूख और इससे पैदा होने वाली बीमारियों व महामारियों का यह कोई जवाब हो ही नहीं सकता है. इसके बजाए हमें एक सशक्त सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरत है जो सबके लिए मुफ्त व गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करा सके, महामारियों का पूर्वानुमान और इनकी रोकथाम कर सके और चिरस्थायी भूख की समस्या खत्म कर सके. अगर हम यह मांग नहीं करते और इसे हासिल नहीं करते हैं तो भारत के गांवों व शहरों में देखी जाने वाली ये महामारियां बारंबार अपना प्रकोप ढाती रहेंगी. ु