भाजपा कैसे हिंसक भीड़ की सहायता और स्वागत करती है

भारत औपनिवेशिक अवधि में अनेकानेक दंगों और जनसंहारों का गवाह रहा है और इसने उपनिवेशोत्तर काल में भी ढेरों जन-हत्याओं और राज्य के सशस्त्र बलों के द्वारा गैर-न्यायिक एनकाउंटरों को भी देखा है; लेकिन ‘लिंचिंग’ के नाम से जिस किस्म की प्रायोजित भीड़ हिंसा चल रही है, वह तो मोदी राज का एक अनूठा प्रतीक-चिन्ह बन गई है. 30 मई 2015 को राजस्थान के नागौर में अब्दुल गफ्फार कुरैशी की हत्या की पहली घटना के बाद से लिंचिंग पीड़ितों की संख्या 120 को भी पार कर गई है. यह लिंच मॉब परिघटना ‘न्यू इंडिया’ के लिए मोदी शासन का सबसे बड़ा योगदान है.

व्हाट्सऐप-प्रायोजित बच्चा-चोरी अफवाहों के चलते हाल में हुए लिंचिंग मामलों के बाद सरकार ने व्हाट्सऐप को ज्यादा सतर्कता बरतने का निर्देश दिया है. मोदी राज में लिंचिंग की घटनाओं की बाढ़ के लिए क्या व्हाट्सऐप ही जिम्मेवार है? व्हाट्सऐप अमूमन सर्वाधिक प्रचलित माध्यम है जो हिंसक भीड़ को उकसाने के लिए ढेरों अफवाहें और नफरतभरी झूठी खबरें फैलाता रहता है. लेकिन इन अफवाहों और झूठी खबरों का जन्मदाता कौन है? प्रायः इसकी जांच-पड़ताल हमें नफरत और झूठ के सबसे बड़े कारखाने - भाजपा के आइटी सेल की ओर ले जाती है! और, इन नफरतों और झूठों को साख कहां से हासिल होती है? इसका जवाब भी हमें संघ ब्रिगेड द्वारा संचालित निरंतर नफरत मुहिम; इसके द्वारा मुस्लिमों, दलितों और कम्युनिस्टों को लगातार निशाना बनाए जाने तथा नारी-द्वेषी विचारों के प्रचार अभियानों में ही प्राप्त होता है. निर्मम भीड़-हिंसा के अधिकांश मामलों की तरफ ले जाने वाले तमाम आरोप आरएसएस एजेंडा के केंद्रीय तत्व हैं, और मुस्लिमों पर निशाना साधना संघी गिरोह की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के केंद्र में निहित है, जिसे अब इस्लाम-भीति की अमेरिका-प्रेरित मुहिम से भी बल मिल रहा है.

लेकिन भीड़ हिंसा को पैदा करने और उसे ताकत पहुंचाने वाला सबसे बड़ा कारक है भाजपा और प्रशासन द्वारा इसका लगातार बढ़ता संरक्षण और हिंसक भीड़ के अंदर निरंतर बढ़ता दंड-मुक्ति का बोध. उत्तराखंड में ‘लव जेहाद’ के आरोपों पर भीड़ हिंसा की चपेट में आए एक नौजवान मुस्लिम को बचाने वाले इंस्पेक्टर गगनदीप आज पुलिस महकमा में एक दुर्लभ अपवाद हैं, जबकि मुस्लिम किसान कासिम को पीट-पीट कर मार डालने वाली लुटेरी हिंसक भीड़ की अगुवाई करने वाले हापुड़ के कांस्टेबुल आज की पुलिस वाहिनी के अधिक बड़े प्रतिनिधि बन गए हैं. और, अगर पुलिस बल कहीं अपना कर्तव्य-पालन करता भी है, तो ये भाजपा के नेता और मंत्री हैं जो आरोपियों के बचाव में दौड़ पड़ते हैं - जैसा कि हमने कठुआ में देखा - या फिर, संस्कृति मंत्री महेश शर्मा हैं जो आधी रात में मोहम्मद अखलाक की लिंचिंग के मामले में प्रमुख अभियुक्त की अंत्येष्टि में शामिल हुए थे. और अब, हमारे सामने नागरिक उड्डयन मंत्री व हजारीबाग के सांसद जयंत सिन्हा की वह दुखद तस्वीर है जिसमें वे रामगढ़ के मांस-विक्रेता अलीमुद्दीन अंसारी की लिंचिंग के लिए आरोपी तत्वों का माला पहनाकर अभिनंदन करते दिख रहे हैं.

जयंत सिन्हा परिघटना ने तथाकथित आर्थिक दक्षिणपंथ और सांप्रदायिक दक्षिणपंथ के बीच की भ्रामक विभाजन रेखा को बिलकुल मिटा दिया है. धार्मिक कट्टरपंथ को हार्वर्ड से सहज ही एक सौम्य चेहरा और डिग्री मिल जा सकता है. कॉरपोरेट लिप्सा के पुजारी, जो आम लोगों की आजीविका और जिंदगी की तनिक भी परवाह नहीं करते हैं, तब संविधान के औचित्य और कानून के शासन की भी धज्जियां उड़ा देते हैं जब सांप्रदायिकता की हिंसक भीड़ों को मदद देने की जरूरत सामने आती है. फासीवाद सत्ता की एक ही हांडी में कॉरपोरेट लिप्सा और सांप्रदायिक घृणा को गला-मिला देता है. और फासिस्ट ताकतें न सिर्फ हिंसक भीड़ का रास्ता साफ करती हैं, बल्कि उसका अभिनंदन भी करती हैं!

अगर हम चाहते हैं कि हमारा संवैधानिक गणतंत्र घृणा-प्रेरित हिंसक भीड़ के सामने घुटने न टेके और कानून के शासन की बुनियाद पर चलता रहे, तो हमें भीड़ हिंसा के संपूर्ण तंत्र को शिकस्त देना होगा; न सिर्फ इसके पैदल सैनिकों को, बल्कि इनके गुरुओं को भी मात देनी होगी जो उन्हें नफरत और झूठ की घुट्टी पिलाते हैं और उन्हें उकसाते रहते हैं; और अंततः उन राजनीतिक-प्रशासकीय प्रबंधकों को भी धूल चटानी होगी जो अपने सत्ता-प्रतिष्ठान से उन्हें वैधता व सहायता प्रदान करते हैं! ु