कार्ल मार्क्स की जन्म द्विशतवार्षिकी को समर्पित कार्ल मार्क्स की दो युगांतकारी खोजें

विज्ञान के इतिहास में मार्क्स ने जिन महत्त्वपूर्ण बातों का पता लगाया, उनमें से हम यहां दो का उल्लेख कर रहे हैं.

पहली तो विश्व इतिहास की सम्पूर्ण धारणा में ही वह क्रान्ति है, जो उन्होंने सम्पन्न की. इतिहास का पहले का पूरा दृष्टिकोण इस धारणा पर आधारित था कि सभी तरह के ऐतिहासिक परिवर्तनों का मूल कारण मनुष्यों के परिवर्तनशील विचारों में ही मिलेगा, और सभी तरह के ऐतिहासिक परिवर्तनों में सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन ही हैं, तथा सम्पूर्ण इतिहास में उन्हीं की प्रधानता है. लेकिन लोगों ने यह प्रश्न नहीं किया था कि मनुष्य के दिमाग में ये विचार आते कहां से हैं, और राजनीतिक परिवर्तनों की प्रेरक शक्तियां क्या हैं. केवल फ्रांसीसी और कुछ-कुछ अंग्रेज इतिहासकारों की नवीनतर शाखा में यह विश्वास बरबस प्रविष्ट हुआ था कि कम-से-कम मध्ययुग से, सामाजिक और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए उदीयमान पूंजीपति वर्ग का सामन्ती अभिजात वर्ग के साथ संघर्ष यूरोप के इतिहास की प्रेरक शक्ति रहा है. मार्क्स ने सिद्ध कर दिया कि अब तक का सारा इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है, अब तक के सभी विविधरूपी और जटिल राजनीतिक संघर्षों की जड़ में केवल सामाजिक वर्गों के राजनीतिक और सामाजिक शासन की समस्या, पुराने वर्गों द्वारा अपना प्रभुत्व बनाये रखने तथा नये पनपते हुए वर्गों द्वारा इस प्रभुत्व को हस्तगत करने की समस्या ही रही है. लेकिन इन वर्गों के जन्म लेने और कायम रहने के कारण क्या हैं? इनका कारण वे शुद्ध भौतिक, गोचर परिस्थितियां हैं, जिनके अन्तर्गत समाज किसी भी युग में अपने जीवन-यापन के साधनों का उत्पादन और विनिमय करता है. मध्ययुग के सामन्ती शासन का आधार छोटे-छोटे कृषक समुदायों की स्वावलम्बी अर्थव्यवस्था था, जो अपनी जरूरत की प्रायः सभी चीजों का स्वयं उत्पादन कर लेते थे. इनमें विनिमय का प्रायः पूर्ण अभाव था, शस्त्रधारी सामन्त बाहर के आक्रमणों से इनकी रक्षा करते थे, उन्हें जातीय या कम से कम राजनीतिक एकता प्रदान करते थे. नगरों के अभ्युदय के साथ अलग-अलग दस्तकारियों और परस्पर व्यापार का विकास हुआ जो पहले आन्तरिक क्षेत्र में सीमित था, और आगे चलकर अन्तरराष्ट्रीय हो गया. इस सबके साथ नगर के पूंजीपति वर्ग का विकास हुआ और मध्यवर्ग में ही उसने सामन्तों से लड़-भिड़कर सामन्ती व्यवस्था के अन्दर एक विशेषाधिकार प्राप्त श्रेणी के रूप में अपने लिए स्थान बना लिया.

परन्तु 15वीं शताब्दी के मध्य के बाद से, यूरोप के बाहर की दुनिया का पता लगने पर, इस पूंजीपति वर्ग को अपने व्यापार के लिए कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र मिल गया. इससे उसे अपने उद्योग-धन्धों के लिए नयी स्फूर्ति मिली. प्रमुख शाखाओं में दस्तकारी का स्थान मैन्युफैक्चर ने ले लिया जो अब फैक्टरियों के पैमाने पर कायम हुआ. फिर इसकी जगह बड़े पैमाने के उद्योग ने ले ली, जो पिछली सदी के आविष्कारों, खासकर भाप से चलनेवाले इंजन के आविष्कार से सम्भव हो गया था. बड़े पैमाने के उद्योग का व्यापार पर यह प्रभाव पड़ा कि पिछड़े हुए देशों में पुराना हाथ का काम ठप हो गया और उन्नत देशों में उसने संचार के आधुनिक नये साधन - भाप से चलने वाले जहाज, रेल, वैद्युतिक तार - उत्पन्न किये. इस प्रकार पूंजीपति वर्ग सामाजिक सम्पत्ति और सामाजिक शक्ति दोनों को अधिकाधिक अपने हाथों में केन्द्रित करने लगा, यद्यपि काफी अरसे तक राजनीतिक सत्ता से वह वंचित रहा, जो सामन्तों और उनके द्वारा समर्थित राजतन्त्र के हाथ में थी. लेकिन विकास की एक मंजिल ऐसी आयी - फ्रांस में महान क्रान्ति के बाद - जब उसने राजनीतिक सत्ता को भी हथिया लिया, और तब वे वह सर्वहारा वर्ग और छोटे किसानों के ऊपर शासन करनेवाला वर्ग बन गया. इस दृष्टिकोण से, समाज की विशेष आर्थिक स्थिति का सम्यक ज्ञान होने से सभी ऐतिहासिक घटनाओं की बड़ी सरलता से व्याख्या की जा सकती है, यद्यपि यह सही है कि हमारे पेशेवर इतिहासकारों में इस ज्ञान का सर्वथा अभाव है. इसी प्रकार हर ऐतिहासिक युग की धारणाओं और उसके विचारों की व्याख्या बड़ी सरलता से, उस युग की आर्थिक जीवनावस्थाओं और सामाजिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों के आधार पर (ये सम्बन्ध भी आर्थिक परिस्थितियों द्वारा ही निर्धारित होते हैं) की जा सकती है. इतिहास को पहली बार अपना वास्तविक आधार मिला. यह आधार एक बहुत ही स्पष्ट सत्य है जिसकी ओर पहले लोगों का ध्यान बिल्कुल नहीं गया था, यानी यह सत्य कि मनुष्यों को सबसे पहले खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना और सिर के ऊपर साया चाहिए, इसलिए पहले उन्हें लाजिमी तौर पर काम करना होता है, जिसके बाद ही वे प्रभुत्व के लिए एक-दूसरे से झगड़ सकते हैं, और राजनीति, धर्म, दर्शन, आदि को अपना समय दे सकते हैं. आखिरकार इस स्पष्ट सत्य को अपना ऐतिहासिक अधिकार प्राप्त हुआ.

समाजवादी दृष्टिकोण के लिए इतिहास की यह नयी धारणा सर्वाेच्च महत्त्व की थी. इससे पता लगा कि पहले के सम्पूर्ण इतिहास की गति वर्ग-विरोधों और वर्ग-संघर्षों के बीच में रही है, कि शासक और शासित, शोषक और शोषित वर्गों का अस्तित्व बराबर रहा है और यह कि मानव-जाति के अधिकांश भाग के पल्ले सदा से कड़ी मशक्कत पड़ी है, आनन्दोपभोग बहुत कम. ऐसा क्यों हुआ? इसीलिए कि मानव-जाति के विकास की सभी पिछली मंजिलों में उत्पादन का विकास इतना कम हुआ था कि ऐतिहासिक विकास इस अन्तरविरोधी रूप में ही हो सकता था, ऐतिहासिक प्रगति कुल मिलाकर एक विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक समुदाय के क्रियाकलाप का ही विषय बना दी गई थी, और बहुसंख्यकों के भाग्य में अपने श्रम द्वारा जीवन-निर्वाह के अपने स्वल्प साधन और इसके अतिरिक्त विशेषाधिकार सम्पन्न समुदाय के लिए अधिकाधिक प्रचुर साधन उत्पादित करना रह गया था. परन्तु इतिहास की यही जांच-पड़ताल, जो हमें इस प्रकार पहले के वर्ग शासन की स्वाभाविक एवं बुद्धिसम्मत व्याख्या प्रदान करती है (अन्यथा हम मानव-स्वभाव की दुष्टता द्वारा ही उसकी व्याख्या कर सकते थे), साथ ही साथ हमें यह बोध कराती है कि वर्तमान युग में उत्पादक शक्तियों के अति प्रचण्ड विकास के कारण मानव-जाति को शासक और शासित, शोषक और शोषित में बांट रखने का अन्तिम बहाना भी, कम से कम सबसे उन्नत देशों में, मिट चुका है; कि शासक बड़े पूंजीपति अपनी ऐतिहासिक भूमिका समाप्त कर चुके हैं, और जैसा कि व्यापारिक संकटों, और खासकर पिछली भयानक गिरावट और सभी देशों में फैली मन्दी से सिद्ध हो चुका है, वे समाज का नेतृत्व करने के योग्य अब नहीं रह गये हैं, बल्कि उत्पादन के विकास में बाधक बन गये हैं; कि ऐतिहासिक नेतृत्व सर्वहारा वर्ग के हाथ में चला गया है, ऐसे वर्ग के हाथ में चला गया है जो समाज में अपनी समग्र स्थिति के कारण सम्पूर्ण वर्ग शासन, सम्पूर्ण दासता एवं सम्पूर्ण शोषण का अन्त करके ही अपने को मुक्त कर सकता है; और यह कि सामाजिक उत्पादक शक्तियां, जो इतनी विकसित हो गयी हैं कि पूंजीपति वर्ग के काबू से बाहर हैं, बस इस प्रतीक्षा में हैं कि एकजुट सर्वहारा उन्हें अपने हाथों में ले ले, जिससे कि ऐसी अवस्था कायम की जा सके जिसमें समाज का प्रत्येक सदस्य न केवल सामाजिक सम्पदा के उत्पादन में, बल्कि वितरण और प्रबन्ध में भी हाथ बंटा सकेगा, और जो अवस्था सम्पूर्ण उत्पादन के नियोजित संचालन द्वारा सामाजिक उत्पादक शक्तियों और उनकी उपज को इतना बढ़ा देगी कि प्रत्येक व्यक्ति की सभी उचित आवश्यकताओं की उत्तरोत्तर बढ़ती मात्रा में पूर्ति सुनिश्चित हो जायेगी.

मार्क्स ने जिस दूसरी महत्त्वपूर्ण बात का पता लगाया है, वह पूंजी और श्रम के सम्बन्ध का निश्चित स्पष्टीकरण है. दूसरे शब्दों में, उन्होंने यह दिखाया कि वर्तमान समाज में और उत्पादन की मौजूदा पूंजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत किस तरह पूंजीपति मजदूर का शोषण करता है. जब से राजनीतिक अर्थशास्त्र ने यह प्रस्थापना प्रस्तुत की कि समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम ही है, तभी से यह प्रश्न भी अनिवार्य रूप से सामने आया कि इस बात से हम इस तथ्य का मेल कैसे बैठाएं कि उजरती मजदूर अपने श्रम से जिस मूल्य को उत्पन्न करता है, वह पूरा का पूरा उसे नहीं मिलता, वरन उसका एक अंश उसे पूंजीपति को दे देना पड़ता है? पूंजीवादी और समाजवादी, दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों ने इस प्रश्न का ऐसा उत्तर देने का प्रयत्न किया, जो वैज्ञानिक दृष्टि से संगत हो, परन्तु वे विफल रहे. अन्त में मार्क्स ने ही उसका सही उत्तर दिया. वह उत्तर इस प्रकार है - उत्पादन की वर्तमान पूंजीवादी प्रणाली में समाज के दो वर्ग हैं - एक ओर पूंजीपतियों का वर्ग है, जिसके हाथ में उत्पादन और जीवन-निर्वाह के साधन हैं, दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग है, जिसके पास इन साधनों से वंचित रहने के कारण बेचने के लिए केवल एक माल - अपनी श्रम-शक्ति - ही है, और इसलिए जो जीवन-निर्वाह के साधन प्राप्त करने के लिए अपनी इस श्रम-शक्ति को बेचने के लिए मजबूर हैं. परन्तु किसी माल का मूल्य उसके उत्पादन में, और इसीलिए उसके पुनरुत्पादन में भी, लगी सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है. अतः एक औसत मनुष्य की एक दिन, एक महीना या एक वर्ष की श्रम-शक्ति का मूल्य इस श्रम-शक्ति को एक दिन, एक महीना या एक वर्ष तक कायम रखने के लिए आवश्यक जीवन-निर्वाह के साधनों में लगे श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है. मान लीजिये कि किसी मजदूर को एक दिन के जीवन-निर्वाह के साधनों के उत्पादन के लिए छः घण्टे का श्रम चाहिए, या उसी बात को यों कहें कि उनमें लगा श्रम छः घण्टे के श्रम की मात्रा के बराबर है, तो श्रम-शक्ति का एक दिन का मूल्य ऐसी रकम में व्यक्त होगा जिसमें भी छः घण्टे का श्रम लगा हो. अब यह भी मान लीजिये कि इस मजदूर को काम पर लगानेवाला पूंजीपति उसे बदले में यह रकम देता है, और इसलिए उसकी श्रम-शक्ति का पूरा मूल्य उसे अदा करता है. अब अगर मजदूर दिन में छः घण्टे पूंजीपति के लिए काम करता है तो वह पूंजीपति की पूरी लागत को चुकता कर देता है - छः घण्टे के श्रम के बदले छः घण्टे का श्रम देता है पर ऐसी हालत में पूंजीपति के लिए कुछ नहीं रहता, और इसलिए वह तो इसे बिल्कुल दूसरे ही ढंग से देखता है. वह कहता है - मैंने इस मजदूर की श्रम-शक्ति छः घण्टे के लिए नहीं, बल्कि पूरे दिन के लिए खरीदी है, और इसलिए वह मजदूर से 8, 10, 12, 14 या इससे भी अधिक घण्टों तक काम लेता है, और इन अतिरिक्त घण्टों की उपज अवैतनिक श्रम की, ऐसी श्रम की जिसका भुगतान नहीं किया गया होता, उपज होती है, और यह सीधे पूंजीपति की जेब में पहुंच जाती है. इस तरह पूंजीपति की नौकरी करनेवाला मजदूर केवल उस श्रम-शक्ति का मूल्य ही नहीं पुनरुत्पादित करता जिसके लिए उसे मजदूरी मिलती है, बल्कि इसके अलावा वह अतिरिक्त मूल्य भी पैदा करता है, जिसे पहले पूंजीपति हस्तगत करता है, और जो बाद में निश्चित आर्थिक नियमों के अनुसार समूचे पूंजीपति वर्ग के बीच वितरित होता है. यह अतिरिक्त मूल्य वह मूल कोष होता है जिससे लगान, मुनाफा, पूंजी का संचय बनता है - संक्षेप में वह सारी दौलत बनती है, जिसका गैर-मेहनतकश वर्ग उपभोग अथवा संचय करते हैं. इससे यह सिद्ध हो गया कि आज के पूंजीपतियों द्वारा धन संचय उसी प्रकार दूसरों के अवैतनिक श्रम का हस्तगतकरण है, जिस प्रकार दास-स्वामियों या भू-दास श्रम का शोषण करनेवाले सामन्ती प्रभुओं का धन-संचय था, और शोषण के इन सभी रूपों में अन्तर केवल अशोधित श्रम के हस्तगतकरण के तरीके और ढंग का ही है. पर इस बात ने सम्पत्तिधारी वर्गों के ढोंग से भरे शब्दजाल का अन्तिम औचित्य भी समाप्त कर दिया, जिसका आशय यह होता था कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में कानून और न्याय, अधिकारों और कर्तव्यों की समानता तथा हितों के सामंजस्य का बोलबाला है, और यह प्रकट कर दिया कि वर्तमान पूंजीवादी समाज भी, अपने पूर्ववर्ती समाजों की ही भांति और उनसे किसी भी तरह कम नहीं, जनता की विशाल बहुसंख्या के निरन्तर घटते ही जाते अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा शोषण की एक भीमकाय संस्था मात्रा है. (एंगेल्स द्वारा जून, 1877 के मध्य में लिखित लेख का अंश, शीर्षक हमारा)