एससी/एसटी (अत्याचार निरोधक) अधिनियम पर न्यायिक हमला और दलित प्रतिवादकारियों पर राजनीतिक हिंसा

दीर्घ काल से लम्बित पड़े संशोधनों को ग्रहण करने के बाद अंततः 2015 में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम को शक्तिशाली बनाया गया था. ये संशोधन इस खामी को दुरुस्त करने के लिये थे कि एससी/एसटी ऐक्ट के तहत सजा दिये जाने की दर काफी नीची रह जा रही थी. संशोधित कानून ने एससी/एसटी लोगों के खिलाफ आम तौर पर किये जाने वाले अत्याचारों के समूचे दायरे को चिन्हित किया था, केवल इन्हीं मामलों से निपटने के लिये स्पेशल कोर्ट कायम करना अनिवार्य बना दिया था और इस कानून के तहत होने वाले अपराधों पर मुकदमा चलाने के लिये इन्हीं मामलों के विशेष लोक अभियोजकों को नियुक्त किया था, और अगर पीड़ितों एवं गवाहों के अधिकारों की रक्षा करने में लोकसेवक नाकाम रहें और अपने कर्तव्य की अवहेलना करें तो उनके खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान भी था. संशोधित कानून अप्रैल 2016 में लागू हुआ. अब जबकि संशोधित कानून को लागू किये लगभग महज दो वर्ष का ही अरसा बीता है, और इसको कितनी गंभीरता से लागू किया गया इसके बारे में कोई मूल्यांकन नहीं किया गया है, तब सर्वोच्च न्यायालय और भारत सरकार ने इसी बीच इस कानून का ‘दुरुपयोग’ किये जाने और ‘झूठी शिकायतें’ किये जाने का जो हौवा खड़ा किया गया है उसे मान्यता दे दी है और इस कानून को असाध्य रूप से शिथिल कर देने की कोशिश की है.

सर्वोच्च न्यायालय ने 20 मार्च 2018 को दिये गये अपने आदेश में इस कानून को नखदंतहीन बना दिया है, क्योंकि उसने यह आदेश दिया है कि किसी आरोपी लोक सेवक के मामले में उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की लिखित अनुमति के बिना उसको गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, और कोई अन्य व्यक्ति आरोपी हो तो जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की लिखित अनुमति के बिना आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता. इसके अलावा यह आदेश भी जारी किया गया है कि इस कानून के तहत बिना प्राथमिक जांच किये कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं किया जा सकता - प्राथमिक जांच इस बात पर होगी कि यह मामला अत्याचार निरोधक कानून के दायरे के अंदर आता है कि नहीं, और यह ‘छिछोरा या गलत उद्देश्य से प्रेरित’ है कि नहीं! यहां नोट करना जरूरी है कि इस किस्म से शिथिल बना दिये जाने के बाद तो अत्याचार निरोधक कानून आम किस्म के आपराधिक कानूनों से भी कमजोर हो जाता है - उदाहरणार्थ हत्या का प्रयास अथवा डकैती करने का इरादा जैसे मामले, जिनमें ‘छिछोरा या गलत उद्देश्य से प्रेरित’ मामला है कि नहीं इसकी कोई ‘प्राथमिक जांच’ नहीं की जाती. हत्या का प्रयास और डकैती का इरादा तो आपराधिक कानून के सबसे ज्यादा दुरुपयोग किये जाने वाले प्रावधान हैं: पुलिस इन प्रावधानों का इस्तेमाल करके नियमित रूप से गरीब एवं वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले निर्दोष दर्शकों अथवा प्रतिवादकारियों पर सबसे निर्लज्ज झूठे मुकदमे थोपती रहती है, मगर ‘झूठे मुकदमे’ और ‘दुरुपयोग’ का हौवा तो केवल दलितों की अत्याचार से रक्षा करने (अत्याचार निरोधक कानून) और महिलाओं की घरेलू हिंसा से रक्षा करने (498-ए) जैसे कानूनों के मामले में ही खड़ा किया जाता है. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में अत्याचार निरोधक कानून में अग्रिम जमानत दिये जाने पर पाबंदी को भी हटा लिया गया है - यह प्रावधान आरोपी व्यक्तियों द्वारा दलित शिकायतकर्ताओं को आतंकित करने या उन पर दबाव डालने से रोकने के लिये आवश्यक है.

दलित ग्रुपों द्वारा आहूत और वामपंथी एवं लोकतांत्रिक संगठनों एवं आंदोलनों द्वारा समर्थित भारत बंद की अभूतपूर्व सफलता के बाद अब भारत सरकार ने घोषणा की है कि वह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका (रिव्यू पिटीशन) दायर करेगी. मगर तथ्य यह है कि सर्वोच्च न्यायालय में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए अतिरिक्त महाधिवक्ता मनिंदर सिंह ने ‘दुरुपयोग’ और ‘झूठे मुकदमों’ के आधारहीन दावों को मान लिया था और अग्रिम जमानत के प्रावधानों को शिथिल किये जाने का पक्ष लिया था! अतिरिक्त महाधिवक्ता जब यह पेश कर रहे थे कि सरकार ने इस मुद्दे पर संसद में विचार करते समय ‘झूठे मुकदमों के मामलों में सजा’ को खारिज कर दिया था क्योंकि वह कानून की भावना के खिलाफ था, तो वे इस बात को चिन्हित नहीं कर पाये कि यह खारिज किया जाना इस तथ्य पर आधारित था कि किसी आरोपी को सजा दिये जाने या उसे बरी किये जाने का अर्थ ‘झूठा मुकदमा’ नहीं होता.

यह विडम्बना है कि दलितों के हत्याकांड की पूरी शृंखला में सभी आरोपियों को बरी किये जाने के खिलाफ दायर की गई सारी अपीलें - जिनमें आंध्र प्रदेश का सुन्दुरु मुकदमा, बिहार का बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे और अन्य मुकदमे शामिल हैं - उसी सर्वोच्च न्यायालय में धूल फांक रही हैं, जिनकी एक भी सुनवाई नहीं हुई, यह वही सर्वोच्च न्यायालय है जिसने बड़ी खुशी-खुशी मान लिया था कि सजा दिये जाने की नीची दर अथवा गवाहों या शिकायतकर्ताओं का बयानपलट हो जाना ‘दुरुपयोग’ और ‘झूठी शिकायतों’ का सबूत है. रणवीर सेना के बरी किये गये लोगों ने कैमरे पर (कोबरापोस्ट स्टिंग ऑपरेशन) में बिहार में जनसंहार करने के बारे में शेखियां बघारी थीं. इन मुकदमों में गवाहों ने साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिये अपनी जान की बाजी लगा दी थी - मगर उनको न्याय ने टरका दिया और हत्यारे बरी होकर छुट्टा घूम रहे हैं. गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होने की स्थिति में, और आरोपियों को बचाने के लिये पुलिस के साथ अभियोजन पक्ष की सांठगांठ के कुत्सित यथार्थ को देखते हुए, एससी/एसटी अत्याचार के कुछेक मामलों में कुछेक गवाह जरूर बयानपलट हो जाते हैं. यहां तक कि जहां गवाह डटे रहते हैं, वहां कमजोर और पक्षपातपूर्ण जांच कार्यवाही और अभियोजन पक्ष की सचेत लापरवाही का परिणाम होता है कि आरोपी बरी हो जाते हैं. इन घटनाओं को ‘झूठे मुकदमों’ के सबूत के बतौर कतई नहीं माना जा सकता!

सर्वोच्च न्यायालय ने यह आरोप लगाकर कि अत्याचार निरोधक कानून के तहत दायर किये गये मुकदमे स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करते हैं और ‘समाज के एकीकरण’ में बाधक हैं, इस सम्बंध में कहे गये अम्बेडकर के शब्दों का मजाक उड़ाया है. यह फैसला इस तथ्य के बारे में अस्वाभाविक चुप्पी बरतता है कि ‘एकीकरण’ और ‘भाईचारे’ के सामने सबसे बड़ी बाधा छुआछूत है, दलितों द्वारा छुआछूत के खिलाफ न्याय मांगना नहीं. भारत के मानव विकास सर्वेक्षण, 2017 के अनुसार हर चार में से एक भारतीय छुआछूत पर अमल करता है, जिसके फलस्वरूप स्कूलों में, मध्याह्न भोजन में और रेस्टोरेंट में दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है, उन्हें कुँओं और जलाशयों तथा श्मशान घाट जैसे सार्वजनिक संसाधनों से हिंसा के बल पर वंचित किया जाता है, और गैर-दलित जातियों की लड़कियों से शादी करने वाले दलित पुरुषों की हत्या कर दी जाती है.

दलित समूहों द्वारा आहूत भारत बंद को मीडिया द्वारा ‘हिंसक’ बताकर उसकी लानत-मलामत की गई है. तथ्य यह है कि प्रतिवादकारियों द्वारा हिंसा की केवल इक्का-दुक्का घटनाएं हुई हैं, जबकि आम तौर पर दलितों और प्रतिवादकारियों के खिलाफ संगठित हिंसा के बेशुमार सबूत मिले हैं. इन हिंसाओं में 9 दलितों की मृत्यु हुई है - मध्य प्रदेश में छह; उत्तर प्रदेश में दो और राजस्थान में एक की. उदाहरणार्थ, ग्वालियर में एक राजा सिंह चौहान ने, जो न दलित था और न प्रतिवादकारी, अपनी पिस्तौल से गोली चलाकर तीन दलितों की हत्या कर दी, और इसके बाद दलित प्रतिवादकारियों पर ही गोली चलाने का दोष मढ़ने की कोशिश की. ग्वालियर के निकट डाबरा में एक दलित प्रतिवादकारी की जान एक पुलिस अफसर द्वारा की गई फायरिंग से हुई. राजस्थान में प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा कि एक स्वयम्भू राजपूत करणी सेना के सदस्य ने दलित प्रतिवादकारियों के खिलाफ हिंसा की, जबकि बिहार में बजरंग दल और ‘हिंदू पुत्र’ जैसे संगठनों ने कई जगह प्रतिवादकारियों पर हमला किया और कई प्रतिवादकारियों को घायल कर दिया. विडम्बना है कि जो लोग भारत बंद के दौरान नौ लोगों की जान जाने के चलते दलित प्रतिवादकारियों पर ही हिंसा का इल्जाम लगा रहे हैं वे भूल जा रहे हैं कि पद्मावती फिल्म के खिलाफ करणी सेना द्वारा जारी लगातार हिंसक प्रतिवादों के दौरान करणी सेना के एक भी व्यक्ति को गोली से नहीं मारा गया था - इसके बजाय कई राज्य सरकारों ने पद्मावती को हॉल में प्रदर्शित किये जाने सम्बन्धी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश को मानने से इनकार कर दिया था और करणी सेना द्वारा की जा रही हिंसा के खिलाफ कदम उठाने से भी इनकार कर दिया था! जहां सैकड़ों दलित प्रतिवादकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया, वहीं करणी सेना द्वारा की गई हिंसा के साथ पूरी नरमी की गई और पूरे प्रतिवाद के दौरान एक भी करणी सेना के सदस्य को गिरफ्तार नहीं किया गया.

इसके अलावा, यह दावा कि बंद के चलते हिंसा हुई, इस तथ्य द्वारा खंडित हो जाता है कि बंद के दिन हिंसक गिरोहों के झुंड ने दलित बस्तियों पर हमले किये और राजस्थान के करौली जिले के हिंदुआन कस्बे में वर्तमान और भूतपूर्व विधायकों के घरों को आग के हवाले कर दिया. जाहिर है कि इस बिना उकसावे के की गई दलित विरोधी हिंसा को रोकने के लिये पुलिस ने न तो कोई फायरिंग की और न ही बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां कीं. अत्याचार निरोधक कानून को निष्प्रभावी बनाये जाने के खिलाफ प्रतिवादों का जवाब और अधिक अत्याचार से दिया गया है और इसके शिकार लोगों पर ‘हिंसक’ होने का ठप्पा लगा दिया गया है, जबकि हिंसा को अंजाम देने वाले लोग सजा से बेखौफ घूम रहे हैं और उनको ‘झूठे मुकदमों’ का ‘शिकार’ बताया जा रहा है.

अत्याचार निरोधक कानून को निष्प्रभावी बनाने में सर्वोच्च न्यायालय में कोई बाधा न देकर उसे शिथिल होने देने में मिलीभगत के चलते मोदी सरकार को उसकी संदिग्ध भूमिका के लिये अवश्य ही जवाबदेह ठहराना होगा. अब जो वह पुनरीक्षण याचिका का स्वांग भर रही है, उससे कानून को निष्प्रभावी बनाने में उसकी मिलीभगत को नहीं छिपाया जा सकता. इसके अलावा, हमें पूछना होगा कि भारत सरकार खुद जनसंहार के मामलों में बरी किये जाने के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित पड़ी अपीलों के मामले में खुद को एक पक्ष क्यों नहीं घोषित कर रही है? क्यों उसके प्रतिनिधि ने सुनवाई के दौरान उन मुकदमों का एक बार भी उल्लेख तक नहीं किया? वह सर्वोच्च न्यायालय में उन अपीलों पर सुनवाई शीघ्र करने की याचना क्यों नहीं कर रही है? क्यों उसके मंत्रीगण और एनडीए गठजोड़ के साझीदार, जो खुद को दलितों का मसीहा बताते हैं, इन मामलों में चुप्पी साधे हुए हैं? बथानी टोला तथा बिहार में हुए अन्य जनसंहारों के मुकदमे पिछले छह साल से सर्वोच्च न्यायालय की अलमारियों में धूल फांक रहे हैं.

अत्याचार निरोधक कानून को निष्प्रभावी बनाये जाने के खिलाफ प्रतिवादकारियों का दृढ़संकल्प और उनकी व्यापक एकता ने भारत बंद को जबरदस्त सफलता दिलाई है. अब उन्हीं एकताबद्ध शक्तियों को गिरफ्तार दलित प्रतिवादकारियों की रिहाई की मांग पर प्रतिवाद आंदोलन को जारी रखना होगा, दलित आंदोलनकारियों पर हिंसा करने वाले लोगों को गिरफ्तार करने और उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग पर तथा अत्याचार निरोधक कानून को न्यायिक ढंग से निष्प्रभावी बनाने के निर्णय को वापस लेने की मांग पर प्रतिवाद आंदोलन जारी रखना होगा.