बजट 2018 - मजदूर-विरोधी, कॉरपोरेट-परस्त थोथी बातें, भ्रामक दावे, लेकिन संकट ग्रस्त जनता के लिए कोई राहत नहीं

1 फरवरी 2018 को पेश बजट 2018-19 भी अरुण जेटली द्वारा पेश पिछली सालों के बजटों की तरह ही बजट में की गई घोषणाओं को लागू करने के लिए कोई ठोस आवंटन राशि का प्रावधान बनाये बगैर की गई खोखली बयानबाजी है. इस बजट में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तबाह कर रहे कृषि संकट को हल करने की दिशा में कोई कोशिश नहीं की गई, फिर भी 2022 तक किसानों की आय दुगना करने के खोखले वायदे को दुहरा दिया गया है. देश भर में किसान संगठनों द्वारा उठाई जा रही कर्ज मुक्ति की मांग पर बजट पूरी तरह चुप है और इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य को स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार लागू करने का दावा बिल्कुल ही आधारहीन एवं भ्रामक है. वैसे भी सरकार के लागत मूल्य की गणना करने के फार्मूले में केवल चालू लागत सामग्रियों के मूल्य ही शामिल किये जाते हैं जबकि किसानों द्वारा स्वयं लगायी गयी लागत सामग्रियों, श्रम आदि को तो शामिल ही नहीं किया जाता है. इसी तरह बजट में ट्रेड यूनियनों और स्कीम कर्मचारियों की न्यूनतम मजदूरी, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा तथा उन्हें श्रमिक का दर्जा देने व समान काम का समान वेतन देने के बारे में पूरी तरह चुप्पी साध ली गई है. बल्कि, इस बजट ने एक और आधुनिक गुलामी की प्रथा “फिक्स्ड टर्म इम्प्लायमेंट” को देशभर में फैलाने का काम किया है.
मनरेगा में आवंटन पिछले साल जितना ही छोड़ दिया गया है, जबकि कई राज्यों में मनरेगा मजदूरी कानून में तय न्यूनतम मजदूरी के कम दी जा रही है और इस कानून के तहत परिवारों को मिल रहा औसत रोजगार केवल 49 दिन प्रति वर्ष ही है.

यह बजट भारतीय जनता के लिए आज के दो सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक सरोकारों - बेरोजगारी एवं बेतहाशा बढ़ रही गैरबराबरी - के बारे में बिल्कुल चुप्पी साधे हुए है. अति-धनाढ्यों पर टैक्स लगाने का कोई प्रावधान इसमें नहीं लाया गया है, जबकि हम जानते हैं कि वर्ष 2017 में केवल 1 प्रतिशत धनिकों के पास देश की 73 प्रतिशत सम्पत्ति चली गई है. इस बजट में स्वास्थ्य लाभ के लिए बड़ी-बड़ी बातें की गई हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि जन स्वास्थ्य सेवा तंत्र को मजबूत बनाने की बजाय इसमें केवल गरीबों को मिलने वाला स्वास्थ्य बीमा कवर बढ़ाया गया है जोकि अंतत निजी अस्पतालों और बीमा कम्पनियों को सरकारी खजाने से मुनाफा दिलवायेगा. एक ओर पूरा देश आज भी नोटबंदी से बने आर्थिक संकट और भारी तबाही से उबरने की कोशिश कर रहा है, वहीं अरुण जेटली जनता की बर्बादी और अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुंचाने वाले इस कदम को ‘ईमानदारी का उत्सव’ बता कर एक बार फिर जनता का मजाक उड़ा गये.

ऐक्टू विपक्ष का आहृान करता है कि वे बजट में जरूरी सवालों पर लगाई गई चुप्पी और किसानों व गरीबों के नाम में की गई थोथी बयानबाजी के लिए सरकार को घेरें और उसे उत्तरदायी ठहरायें. ऐक्टू मजदूरों, महिला स्कीम कर्मियों, बेरोजगार नौजवानों, किसानों और छात्रों के सवालों पर जनसंघर्षों को तेज करने के लिए प्रतिबद्ध है और संयुक्त ट्रेड यूनियन आंदोलन को तीव्र करने का आहृान करता है.